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बेटी की गुल्लक (कविता) Editior's Choice

मेरी बेटी रोज़ सुबह उठती है
और नियम से अपनी गुल्लक में डालती है सिक्के
इन सिक्कों की खनक से खिल जाती है उसके चेहरे पर
एक बेहद मासूम-सी मुस्कान
वह नियम से डालती है अपनी गुल्लक में सिक्के
ठीक ऐसे ही जैसे
नियम से निकलते हैं आसमान में
चाँद, सूरज और तारे

वह सोचती है कि एक दिन लेकर अपनी गुल्लक
निकलेगी वह बाज़ार और
ख़रीद लाएगी अपनी पसंद के मुट्ठी भर तारे
ढेर सारी ख़ुशियाँ और न जाने क्या कुछ
मैं उसके चेहरे पर खिली इस मुस्कान को देखती हूँ हर सुबह
और उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा देती हूँ

मेरी चार साल की मासूम बेटी नहीं जानती
मुद्रा, मुद्रास्फीति और विश्व बाज़ार के बारे में कुछ भी
वह नहीं जानती कि क्यों दुनिया के तराज़ू पर
गिर गया है रुपये का वज़न
वह इंतज़ार कर रही है उस दिन का
जिस दिन भर जाएगी उसकी गुल्लक इन सिक्कों से और
वह निकलेगी घर से इन चमकते सिक्कों को लिए
ख़रीदने चमकीले सपने
जानती हूँ मैं कि जिस दिन इन सिक्कों को लिए
खड़ी होगी वह बाज़ार में
उसकी आँखों के कोरों में आँसुओं के सिवाय कुछ नहीं होगा

मैं उसकी पलकों पर आँसू की बूँदों की कल्पना करती हूँ
और बेहद उदास हो जाती हूँ।


रचनाकार : ज्योति चावला
            

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