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बेलगाम घोड़े (कविता)

आज से नहीं बचपन से
देखता हूँ इन बेलगाम घोड़ों को
उन्मत्त हिनहिनाते उछलते-कूदते
रौंदते बाग़ों को, बग़ीचों को
कलियों को, फूलों को, बच्चों को, बूढ़ों को
सशक्तों को, अशक्तों को
चँभोड़ते चौड़े-चौड़े जबड़ों से
लोगों की दुबकी-सुबकी गर्दनों को!
बड़ी मुश्किल से बचाया माँ-बाप ने
बंद रक्खा आँगन में
लाठी सिरहाने रखकर सोए
फिर भी जागती रही नन्ही बहन कमला!
यही घोड़े आड़े आए
मेरे कॉलेज की राह में
छूटा मेरा आगे पढ़ना!
आज से नहीं बचपन से
देखता हूँ इन बेलगाम घोड़ों को
उन्मत्त हिनहिनाते उछलते-कूदते
लतियाते लोगों को
खुलेआम सड़कों पर!

लावारिस कुत्तों को ले जाती म्युनिसपैलिटी
चोर-डाकुओं के लिए पुलिस है, जेल है
मगर क्या कोई नहीं जो बाँध ले इन थोड़े से घोड़ों को
या मार दे एक गोली इनकी कनपटी पर
कि ढहढहा कर गिर पड़े ये पागल उत्पात
बढ़ते हुए दामों के बेलगाम घोड़ों को!


रचनाकार : शैलेन्द्र
            

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