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बहरूपिया आ रहा है (कविता) Editior's Choice

इन दिनों घूम रहा है बहरूपिया अलग-अलग रंगों में
उसके झोले में हैं न जाने कितने भेस
न जाने कितने चेहरे, न जाने कितने रूप
वह क्षण-क्षण बदलता है रूप और
दुनिया में बैठे लोग अपने रंगीन टी॰वी॰ पर देखकर उसकी तस्वीर
रीझते रहते हैं उस पर
वह बदलता है मुखौटा और घुस जाता है भीड़ में
और झट से डालकर जेब में हाथ
खींच लेता है तस्वीर अपने ही इस नए रूप की

बहरूपिया खींच रहा है तस्वीर
और खिंचवा रहा है तस्वीरें
ये तस्वीरें ही बना रही हैं मेरे समय को
और खिलंदड़ा कि खेल रहा है कैमरा
हर रोज़ हमारी स्मृतियों से
बहरूपिये की तस्वीरें छाई हुई हैं
टी॰वी॰, अख़बार, इंटरनेट से लेकर
पानी में दिख रही परछाईं पर भी

बहरूपिया कहता है हँसो ज़ोर से हँसो
कि अब समय आ गया है हँसने का, खिलखिलाने का
और टी॰वी॰ पर स्पीकर तोड़कर हँसी के ठहाके
गूँजने लगते है
इतनी तेज़ी से हँसता है बहरूपिया कि
घर में सुस्ता रहे ख़ाली मटके तड़क जाते हैं अचानक

बहरूपिया कहता है यह समय ऐतिहासिक समय है
कि इस समय में सबके हँसने के लिए है पर्याप्त कारण
और दूर जंगलों में चार साल का एक आदिवासी बच्चा
भूख से तड़प कर गँवा देता है जान

बहरूपिया बजाता है बीन शांति की
और एक पूरा गाँव छोड़कर अपने आँगन के देवता को अनाथ
चल देता है निराश किसी अनजान दिशा की ओर

बहरूपिया फिर बदलता है कपड़े और
कैमरा घूम जाता है उसके कुरते की बुनावट की बारीकियों पर
और उधर नदी में एक मायूस पुरुष जिसकी उम्र
उसके अनुभव से दोगुनी दिखने लगी है
देता है अपनी पत्नी को अंतिम विदाई जो पिछले कई सालों से
नदी में आकंठ डूब पति का हाथ थामे कर रही थी मूक विरोध
सरकारी नीतियों का

बहरूपिया कहता है देखो-देखो इधर देखो
कि इधर से ही चमकेगा नया सूरज
इधर ही बनाएँगे हम नई मीनारें जो छू लेंगी आसमान को
वह कहता है कि विश्वास करो मुझ पर आँखें मींच कर
मैं लाऊँगा तुम्हारे लिए धरती की छाती से
तुम्हारे हिस्से का अन्न
तुम्हारे हिस्से की धूप, तुम्हारे हिस्से का पानी
लाने की ज़िम्मेदारी मेरी ही है
वह कहता है मैं जगता हूँ रात भर तुम्हारे लिए
ताकि सो सको तुम चैन की नींद
लोग उसके मोहपाश में बँधने लगते हैं
वे मींचने लगते हैं अपनी आँखें उसके समर्थन में
और बहरूपिया फिर रूप बदल लेता है
वह कहता है इंतज़ार करो मैं लाऊँगा
तुम्हारे हिस्से का सब कुछ, सब कुछ और
झट से हवाई घोड़े पर सवार हो जाता है

बहरूपिया अभी सात समंदर पार बजा रहा है नगाड़ा
और खींच रहा है नई तकनीक से नई तस्वीरें
और यहाँ धरती के उस अँधेरे कोने में
रख कर अपनी जीभ पर सल्फ़ास की गोली
सो गया है एक और किसान चुपचाप।


            

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