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बस (नज़्म) Editior's Choice

गए लेटने रात ढलते हुए,
उठे सुब्ह को आँख मलते हुए।
नहा धो के कपड़े बदलते हुए,
उठाई किताब और चलते हुए।
सवेरे का जब तक कि इस्कूल है,
यही अपना हर रोज़ मा'मूल है।
खड़े हैं सड़क पर कि अब आई बस,
गुज़रता है इक इक मिनट इक बरस।
बस आई तो रश इस क़दर पेश-ओ-पस,
कि अल्लाह बस और बाक़ी हवस।
बढ़े हम भी चढ़ने को जब सब के साथ,
तो हैंडल पे था पाँव पैडल पे हाथ।
पैसेंजर की वो भीड़ वो बस का गेट,
गुज़रते हैं मच्छर जहाँ पर समेट।
कोई हो गया चोट खा कर फ़्लैट,
किसी की है कुहनी किसी का है पेट।
खड़े हों कहाँ पाँव रक्खें किधर,
अंधेरा इधर है अंधेरा उधर।
मगर हुक्म चैकर का है आइए,
खड़े क्यों हैं आगे बढ़े जाइए।
जहाँ में जहाँ तक जगह पाइए,
खिसकते खिसकते चले जाइए।
सितारों से आगे जहाँ और हैं,
ज़मीं और हैं आसमाँ और हैं।


रचनाकार : कलीम आजिज़
            

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