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अठारह दिन (कविता) Editior's Choice

न अक्षौहिणी सेनाएँ
न सहस्र कोटि हाथी
मुझे लड़नी पड़ती है
अपने से ही लड़ाई।

कभी भी
कभी तक
कोई समय निश्चित नहीं
जीत-हार कुछ तय नहीं
पहले से कोई तैयारी नहीं।

मैं कटता हूँ, मैं जुड़ता हूँ
मैं मरता हूँ, मैं जीवित होता हूँ।

खन-खन तेग़ चलता है
छप छप छप तलवार
बज्र, बुर्ज़, बरछा, तगाड़ी
छर- छर भर जाता है ख़ून
कविताओं पर।

याद है आपको
पिछली बार तो
अठारह दिन तक
लगातार चला था युद्ध।


            

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