जिन्हें हम एक मुद्दत से जानते हैं
और मिलते ही रहते हैं अक्सर
ऐसे और इतने अपनों पर
बुढ़ापा कब आया
जवानी कहाँ चली गई, किधर...
उम्र के पड़ावों को आसानी से नहीं पहचानते
कभी-कभी
समय में लिपटा
यह अपनापन भी कितना आड़े आता है
भरसक ठेले गए वर्तमान में भी अतीत कितना कितना समाया रहता है!
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