अपने दीवार-ओ-दर से पूछते हैं,
घर के हालात घर से पूछते हैं।
क्यूँ अकेले हैं क़ाफ़िले वाले,
एक इक हम-सफ़र से पूछते हैं।
क्या कभी ज़िंदगी भी देखेंगे,
बस यही उम्र-भर से पूछते हैं।
जुर्म है ख़्वाब देखना भी क्या,
रात-भर चश्म-ए-तर से पूछते हैं।
ये मुलाक़ात आख़िरी तो नहीं,
हम जुदाई के डर से पूछते हैं।
ज़ख़्म का नाम फूल कैसे पड़ा,
तेरे दस्त-ए-हुनर से पूछते हैं।
कितने जंगल हैं इन मकानों में,
बस यही शहर भर से पूछते हैं।
ये जो दीवार है ये किस की है,
हम इधर वो उधर से पूछते हैं।
हैं कनीज़ें भी इस महल में क्या,
शाह-ज़ादों के डर से पूछते हैं।
क्या कहीं क़त्ल हो गया सूरज,
रात से रात-भर से पूछते हैं।
कौन वारिस है छाँव का आख़िर,
धूप में हम-सफ़र से पूछते हैं।
ये किनारे भी कितने सादा हैं,
कश्तियों को भँवर से पूछते हैं।
वो गुज़रता तो होगा अब तन्हा,
एक इक रहगुज़र से पूछते हैं।
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