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अंदर भी आग जला (कविता) Editior's Choice

झूठे सपनों के छल से निकल
चलती सड़कों पर आ!
अपनों से न रह यों दूर-दूर
आ क़दम से क़दम मिला!

हम सबकी मुश्किलें एक सी हैं, ये भूख रोग बेकारी,
कुछ सोच कि सब कुछ होते हुए हम क्यों बन चले भिखारी,
क्यों बाँझ हो चली यह धरती, अंबर क्यों सूख चला?

इस जग में पलते हैं अकाल, है मौत की ठेकेदारी,
सड़कों पर पैदा हुए और सड़कों पर मरे नर-नारी,
लूटी जिसने बच्चों की हँसी, उस भूत का भूत भगा!

यह सच है रस्ता मुश्किल है, मंज़िल भी पास नहीं,
पर हम क़िस्मत के मालिक हैं, क़िस्मत के दास नहीं,
मज़दूर हैं हम, मजबूर नहीं मर जाएँ जो घोट गला!

तू औ’ मैं हम जैसे अनगिन इस बार अगर मिल जाएँ,
तोपों के मुँह फिर जाएँ, ज़ुल्म के सिंहासन हिल जाएँ,
ओ जीते जी जलने वाले, अंदर भी आग जला!


रचनाकार : शैलेन्द्र
            

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