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अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए (ग़ज़ल) Editior's Choice

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए,
तिरी सहर हो मिरा आफ़्ताब हो जाए।

हुज़ूर आरिज़-ओ-रुख़्सार क्या तमाम बदन,
मिरी सुनो तो मुजस्सम गुलाब हो जाए।

उठा के फेंक दो खिड़की से साग़र-ओ-मीना,
ये तिश्नगी जो तुम्हें दस्तियाब हो जाए।

वो बात कितनी भली है जो आप करते हैं,
सुनो तो सीने की धड़कन रबाब हो जाए।

बहुत क़रीब न आओ यक़ीं नहीं होगा,
ये आरज़ू भी अगर कामयाब हो जाए।

ग़लत कहूँ तो मिरी आक़िबत बिगड़ती है,
जो सच कहूँ तो ख़ुदी बे-नक़ाब हो जाए।


            

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