मूर्ति नहीं मानवी
धातु नहीं लचीली देह
पत्थर नहीं ज़बान
कौड़ियाँ नहीं आँखें
मौन की पूजा नहीं
संवाद का आह्वान
टूटती होंगी मूरतें
मानवियाँ हैं अभंग
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