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आशा और उद्योग (कविता) Editior's Choice

(1)
हा! हा! मुझसे कहो न क्यों तुम, आशा कभी न होगी पूर्ण
प्रतिफल इसकी नहीं मिलेगा, बैरी मान न होगा चूर्ण॥

(2)
वृथा मुझे भय मत दिखलाओ, आशा से मत करो निराश।
कुछ भी बल है युगुल भुजों में, तो बैरी होवेगा नाश॥

(3)
कर्मों के फल के मिलने में यद्यपि हो जाती है देर।
तो भी उस जगदीश्वर के घर, होता नहीं कभी अँधेर॥

(4)
करने दो प्रयत्न बल मुझको, देने दो जीवन का दान।
निज कर्त्तव्य पूर्ण कर लूँ मैं, फल का मुझे नहीं कुछ ध्यान॥

(5)
यद्यपि में दुर्बल शरीर हूँ, जीवन भी मेरा निःसार।
प्राणदान देने का तो भी, मुझको है अवश्य अधिकार॥

(6)
जब तक मेरे इस शरीर में, कुछ भी शेष रहेंगे प्राण।
तब तक कर प्रयत्न मेटूँगा, अत्याचारी का अभिमान॥

(7)
धर्म न्याय का पक्ष ग्रहण कर, कभी न दूँगा पीछे पैर।
वीर जनों की रीति यही है, नहीं प्रतिज्ञा लेते फेर॥

(8)
देश दुःख अपमान जाति का बदला मैं अवश्य लूँगा।
अन्यायी के घोर पाप का, दंड उसे अवश्य दूँगा॥

(9)
यद्यपि मैं हूँ एक अकेला, बैरी की सेना भारी।
पर उद्योग नहीं छोड़ूँगा जगदीश्वर है सहकारी॥

(10)
आशा! आशा!! मुझको केवल तेरा रहा सहारा आज।
बल प्रदान तू मुझको करना रख लेना अब मेरी लाज॥


            

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