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आज का दिन बादलों में खो गया था (कविता) Editior's Choice

आज का दिन बादलों में खो गया था
दृष्टि में आकर शशक जैसे
चपल से चपल होकर
सघन पत्रश्याम वन में खो गया था

वायु भू पर और ऊपर
नवल लहराते हुए घन श्याम सुंदर
कहीं धौरे कहीं कारे
लहर तिल तिल पर सँवारे
मधुर मधुर सजीव गर्जन से
ध्वनित जग हो गया था

पंक हो पथ-अंक में रज-कण मिले कल
आज सूखे मार्ग निर्मल
सतत आग्रहशील आकर
पवन शीतल स्पर्श कर कर
अब अवज्ञा पात्र
अति परिचय-जनित वह हो गया था
दूर से, मेरे क्षितिज के पार, पश्चिम में कहीं से
सतत वर्षण-शील जलदों को चला कर
मधुर गर्जन-शील कर बिजली जगा कर
पथ-जनित निज शुष्कता
धन-सीकरों के स्पर्श हर
उच्छ्वसित पछुआ हवा तरु, शस्य और सरोवरों को
अनवरत गति की कहानी साँस सी ले कर सुना कर
मधुर संचित स्नेह-सी करती समर्पण मौन अपना
आज मेरे पास आई
आ गया मन
जो स्मरण में प्रिय प्रवासी हो गया था।


रचनाकार : त्रिलोचन
            

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