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नज़्म
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
अंगारों को यूँ जिनके सीने में धड़कते देखा है, मेहनत कशी से वक्त फिर उनको बदलते देखा है। ये राह आसाँ तो नहीं पर लेना
मंज़िल पर हूँ
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मंज़िल पर हूँ, पैरो को अब और चलने की ज़रूरत ना रही, दिल में इस तरह से बसे हो कि मन्दिर में तेरी मूरत ना रही। फ़लक़, पंछी, ये
वक़्त यूँ ज़ाया न कर
सुनील खेड़ीवाल 'सुराज'
मसर्रतों की तलाश में अपनों से ख़ुद को यूँ पराया न कर, बेशक़ गर्दिश भरा है सफ़र, तू चल वक़्त यूँ ज़ाया न कर। हाँ, मिल ही जाए
तुम्हारा शहर
अली सरदार जाफ़री
तुम्हारा शहर तुम्हारे बदन की ख़ुश्बू से महक रहा था, हर इक बाम तुम से रौशन था हवा तुम्हारी तरह हर रविश पे चलती थी तु
चिड़िया-ख़ाना
फ़राग़ रोहवी
नजमी फ़हमी उज़मा राना आओ देखें चिड़िया-ख़ाना जिन के नाम सुना करते हो आज उन्हें नज़दीक से देखो एक से एक परिंदे दे
नया दिन
निदा फ़ाज़ली
सूरज! इक नट-खट बालक-सा दिन भर शोर मचाए इधर उधर चिड़ियों को बिखेरे किरनों को छितराए क़लम दरांती ब्रश हथौड़ा जगह जग
एक चिड़िया
निदा फ़ाज़ली
जामुन की इक शाख़ पे बैठी इक चिड़िया हरे हरे पत्तों में छप कर गाती है नन्हे नन्हे तीर चलाए जाती है और फिर अपने आप ही
खेलता बच्चा
निदा फ़ाज़ली
घास पर खेलता है इक बच्चा पास माँ बैठी मुस्कुराती है मुझ को हैरत है जाने क्यूँ दुनिया काबा ओ सोमनात जाती है
इंतिज़ार
निदा फ़ाज़ली
मुद्दतें बीत गईं तुम नहीं आईं अब तक रोज़ सूरज के बयाबाँ में भटकती है हयात चाँद के ग़ार में थक-हार के सो जाती है रा
ग़ालिब
जयंत परमार
जब भी तुझको पढ़ता हूँ लफ़्ज़-लफ़्ज़ से गोया आसमाँ खिला देखूँ एक-एक मिसरे में कायनात का साया फैलता हुआ देखूँ!
पतंग
जयंत परमार
कभी कभी मन करता है पतंग बन कर आसमान में उड़ने का घर की टूटी छत पे चढ़ कर देखता हूँ रंग-बिरंगी कई पतंगें लेकिन नीले
घर की याद
जयंत परमार
लौट रहा था फूलों की घाटी से जब सवार था मैं जिस घोड़े पर वो लुढका मैं ने सोचा उसे भी शायद घर की याद ने घेर लिया है!
एक सितारा टूट गिरा था
जयंत परमार
ख़्वाबों की सरहद पे नीला नीला एक समुंदर तेरी आँखों जैसा लहरों के नेज़ों पे बहती जगमग जगमग चाँद सी रौशन अपने प्य
कोशिश
जयंत परमार
कई दिनों से मेरे सर में सुब्ह शाम और रात रात भर ना-उम्मीद परिंदे उड़ते रहते हैं उन्हें रोकना मुश्किल है लेकिन अप
बस
कलीम आजिज़
गए लेटने रात ढलते हुए, उठे सुब्ह को आँख मलते हुए। नहा धो के कपड़े बदलते हुए, उठाई किताब और चलते हुए। सवेरे का जब तक
अख़बार
गुलज़ार
सारा दिन मैं ख़ून में लत-पत रहता हूँ सारे दिन में सूख सूख के काला पड़ जाता है ख़ून पपड़ी सी जम जाती है खुरच खुरच के
आदत
गुलज़ार
साँस लेना भी कैसी आदत है जिए जाना भी क्या रिवायत है कोई आहट नहीं बदन में कहीं कोई साया नहीं है आँखों में पाँव बेहि
किताबें
गुलज़ार
किताबें झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से बड़ी हसरत से तकती हैं महीनों अब मुलाक़ातें नहीं होतीं जो शामें उन की स
फ़ज़ा
गुलज़ार
फ़ज़ा ये बूढ़ी लगती है पुराना लगता है मकाँ समुंदरों के पानियों से नील अब उतर चुका हवा के झोंके छूते हैं तो खुरदु
ग़ालिब
गुलज़ार
बल्ली-मारां के मोहल्ले की वो पेचीदा दलीलों की सी गलियाँ सामने टाल की नुक्कड़ पे बटेरों के क़सीदे गुड़गुड़ाती हुई
एक और रात
गुलज़ार
रात चुप-चाप दबे पाँव चले जाती है रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं काँच का नीला सा गुम्बद है उड़ा जाता है ख़ाल
घुटन
गुलज़ार
जी में आता है कि इस कान से सूराख़ करूँ खींच कर दूसरी जानिब से निकालूँ उस को सारी की सारी निचोड़ूँ ये रगें, साफ़ करूँ
पेंटिंग
गुलज़ार
रात कल गहरी नींद में थी जब एक ताज़ा सफ़ेद कैनवस पर आतिशीं, लाल सुर्ख़ रंगों से मैं ने रौशन किया था इक सूरज... सुब्ह
रात
गुलज़ार
मिरी दहलीज़ पर बैठी हुई ज़ानू पे सर रक्खे ये शब अफ़्सोस करने आई है कि मेरे घर पे आज ही जो मर गया है दिन वो दिन हम-ज़ा
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा
गुलज़ार
लकड़ी की काठी काठी पे घोड़ा घोड़े की दुम पे जो मारा हथौड़ा दौड़ा दौड़ा दौड़ा घोड़ा दुम उठा के दौड़ा घोड़ा पहुँचा
एक ख़्वाब
गुलज़ार
एक ही ख़्वाब कई बार यूँही देखा मैंने तू ने साड़ी में उड़स ली हैं मिरी चाबियाँ घर की और चली आई है बस यूँही मिरा हाथ पक
ख़ुदा
गुलज़ार
पूरे का पूरा आकाश घुमा कर बाज़ी देखी मैंने! काले घर में सूरज रख के तुम ने शायद सोचा था मेरे सब मोहरे पिट जाएँगे मै
डाइरी
गुलज़ार
न जाने किस की ये डाइरी है न नाम है, न पता है कोई: ''हर एक करवट मैं याद करता हूँ तुम को लेकिन ये करवटें लेते रात दिन यूँ
किसान
कैफ़ी आज़मी
चीर के साल में दो बार ज़मीं का सीना दफ़्न हो जाता हूँ गुदगुदाते हैं जो सूरज के सुनहरे नाख़ुन फिर निकल आता हूँ अब न
गीत के जितने कफ़न हैं
कुँअर बेचैन
ज़िंदगी की लाश ढकने के लिए गीत के जितने कफ़न हैं हैं बहुत छोटे रात की प्रतिमा सुधाकर ने छूई पीर ये फिर से सिता
और देखे..
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