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कविता

मानवता बेहाल
ममता शर्मा 'अंचल'
घर के पीछे आम हो, और द्वार पर नीम, एक वैद्य बन जाएगा, दूजा बने हकीम। पीपल की ममता मिले, औ बरगद की छाँव, सपने आएँ सगुन क
संकटों के साधकों
मयंक द्विवेदी
हे संकटों के साधकों अब इन कंटकों को चाह लो समय दे रहा चुनौती जब कुंद को नयी धार दो वार पर अब वार हो और प्रयत्नों की ब
चलो पथिक
मयंक द्विवेदी
सुगम पथ की राहों पर चलना भी क्या चलना है राह सीधी तो सबने देखी जाँची परखी अपनी मानी कहो दुर्गम अनजानी राहों के मंज
किसी पुस्तक के किसी पन्ने पर
हेमन्त कुमार शर्मा
किसी पुस्तक के किसी पन्ने पर, दिखाई दिया, एक कतरन नुमा काग़ज़। लिखा था कल क्या क्या, सामान लाना है, घर चलाने को। शायद
पर्यावरण
डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
चलो बचाएँ प्रकृति धरा को, वृक्षारोपण मिल साथ करें। बाढ़, भूकम्प तूफ़ाँ कहर ताप, पर्यावरण प्रदूषण मुक्त करें। हव
हे तथागत ये बताओं
मयंक द्विवेदी
हे तथागत ये बताओ जीवन का क्या मर्म है? कैसे हो जीवन का उद्धार क्या संन्यास ही है मुक्ति का द्वार कैसे सम्भव है जन्म
बिखरे ना परिवार हमारा
अंकुर सिंह
भैया न्याय की बातें कर लो, सार्थक पहल इक रख लो। एक माँ की हम दो औलादें, निज अनुज पे रहम कर दो॥ हो रहा परिवार की किरकि
ऊहापोह
प्रवीन 'पथिक'
रात ढली ही नहीं! करवट बदलता रहा बिछौने पर। ऑंखों में रौद्र की लालिमा; मस्तिक में प्रश्नों का तूफ़ान; जीवन की आद्योप
मैं चिर निर्वासित दीपक हूँ
राघवेंद्र सिंह
दिनकर-सी चाह नहीं मेरी, उद्घोषित राह नहीं मेरी। निर्भीक, निडर, निश्चल-सा मैं, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल-सा मैं।
ऐ कविता!
सुषमा दीक्षित शुक्ला
ऐ कविता! शायद तू मेरी सहेली है, तू प्यारी सी कोई पहेली है। नीरसता में रस भर देती, तू अलबेली है सच तू अलबेली है। ऐ कवि
फिर भी मुस्कुरा दिया
हेमन्त कुमार शर्मा
ग़म थे ज़माने भर के, फिर भी मुस्कुरा दिया। फूल होने का, फ़र्ज़ अदा किया। काग़ज़ और पैन का, समझोता टूटा। लिखता वो, काग़ज़ की
ख़ास
विनय विश्वा
मनुष्य गुणों से ही तो ख़ास होता है इसीलिए तो वह दिल के पास होता है। ईश्वर के अवतारी युग– त्रेता हो या द्वापर राम के
धरती का शृंगार मिटा है
राघवेंद्र सिंह
धधक उठी है ज्वालित धरती, जल थल अम्बर धधक उठा है। अंगारों की विष बूँदों से, प्रणय काल भी भभक उठा है। सूख गए हैं तृण-त
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है
केदारनाथ अग्रवाल
जो जीवन की धूल चाट कर बड़ा हुआ है तूफ़ानों से लड़ा और फिर खड़ा हुआ है जिसने सोने को खोदा लोहा मोड़ा है जो रवि के रथ
बिन तेल की बाती
मयंक द्विवेदी
देख बिन तेल की बाती को रजनी के अंधेरे भाग रहे देख धधकती ज्वाला में अपने सूत के अंग-अंग को आनंद की इस अनुभूति में प्
ख़ामोशियाँ
आनन्द कुमार 'आनन्दम्'
ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं धीरे-से, हौले-से, चुपके-से ख़ामोशियाँ बहुत कुछ कहती हैं। मन की बाट जोहती हैं बेसुध-बे
आगंतुक
अज्ञेय
आँखों ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं। भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं। राह मैंने बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, ग
अभिशप्त इच्छाएँ
प्रवीन 'पथिक'
सब कुछ बिखर जाने के बाद; पथ-परिवर्तन के बाद; और स्मृतियों का गला घोंटने के बाद भी लगता है, कोई ऐसी बिंदु, कोई अवशेष, क
दुख बदली
हेमन्त कुमार शर्मा
कभी शाम के सिरहाने खड़े सूरज को देखा है, ढलते माथे पर दुख बदली की रेखा है। स्मरण किया उन व्यर्थ हुए मूल्यों का, नदी
स्वयं जलो
संजय राजभर 'समित'
जलो मत न जलाओ किसी को यदि जलाना है तो अंदर के विकारों को जलाओ अप्प दीपो भव: बनो कुंदन बनोगे आत्म चेतना जिस दिन जल ग
होली
गणेश भारद्वाज
सद्भावों की माला होली, ख़ुशियों की है खाला होली। रंग बसे हैं रग-रग इसकी, रंगों की है बाला होली॥ मन के शिकवे दूर करे य
अनुसरण कृष्ण का
हेमन्त कुमार शर्मा
शिथिल पाँव भोग के, विस्मरण भाव शोक के। कर्म से गति का अवसर, सम्यक ध्यान अहरहर। अनुसरण कृष्ण का। होली, अग्नि दहन ईर
बचपन
प्रवीन 'पथिक'
है याद आती, वह बातें पुरानी, वही प्यारा क़िस्सा, वह बीती कहानी। याद आता वह तेरा मुस्काता चेहरा, थी होती लड़ाई, पर था प
नहीं चाहता आसाँ हो जीवन
मयंक द्विवेदी
चाहे सौभाग्य स्वयं हो द्वार खडे, चाहे कर्ता भी हो भूल पड़े, नहीं चाहता आसाँ हो जीवन, चाहे मग में हो शूल गढ़े। जो पत्थ
बाँध ना पाया
हेमन्त कुमार शर्मा
व्यर्थ हुए सावन ने कहा― क्या कोई सम्भाल ना पाया, बहते-बहते पानी को, मुट्ठी में पकड़ ना पाया। यहाँ पुल तिनके से टूट
हम जिएँ न जिएँ दोस्त
केदारनाथ अग्रवाल
हम जिएँ न जिएँ दोस्त तुम जियो एक नौजवान की तरह, खेत में झूम रहे धान की तरह, मौत को मार रहे बान की तरह। हम जिएँ न जिए
जो सहज सुलभ हो
मयंक द्विवेदी
जो सहज सुलभ हो अमृत तो तुच्छ अमृत का क्यूँ पान करूँ इससे अच्छा तो विष पीकर विष का ही गुणगान करूँ कूल सिंधु के बैठे-
ऋतुराज बसंत
गणेश भारद्वाज
पहन बसंती चोला देखो, अब शील धरा सकुचाई है। कू-कू करती कोयल रानी, लो सबके मन को भाई है। हरयाली है वन-उपवन में, कण-कण म
शिव का सार
हेमन्त कुमार शर्मा
गहन क्लेश में सुख का आगार योग से प्राप्य शिव का सार। बृहद क्षेत्र में व्यापक आकाश सर, कल्प दिए सरलता से संवत्सर। न
मेरी कविताएँ
जयप्रकाश 'जय बाबू'
मेरी कविताएँ मेरा सहारा है मैंने जब जब उनको पुकारा है वह साथ देती है मेरा हर वक्त फैलाती दिल में उजियारा है मेरी क

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