ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा (ग़ज़ल)

ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा,
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा।

अपने साए से चौंक जाते हैं,
उम्र गुज़री है इस क़दर तन्हा।

रात भर बातें करते हैं तारे,
रात काटे कोई किधर तन्हा।

डूबने वाले पार जा उतरे,
नक़्श-ए-पा अपने छोड़ कर तन्हा।

दिन गुज़रता नहीं है लोगों में,
रात होती नहीं बसर तन्हा।

हम ने दरवाज़े तक तो देखा था,
फिर न जाने गए किधर तन्हा।


रचनाकार : गुलज़ार
यह पृष्ठ 412 बार देखा गया है
×
आगे रचना नहीं है


पिछली रचना

बीते रिश्ते तलाश करती है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें