ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें,
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें।
कहीं ज़ुल्मतों में घिर कर है तलाश-ए-दश्त-ए-रहबर,
कहीं जगमगा उठी हैं मिरे नक़्श-ए-पा से राहें।
तिरे ख़ानुमाँ-ख़राबों का चमन कोई न सहरा,
ये जहाँ भी बैठ जाएँ वहीं इन की बारगाहें।
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता,
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें।
मिरे अहद में नहीं है ये निशान-ए-सरबुलंदी,
ये रंगे हुए अमामे ये झुकी झुकी कुलाहें।
अगली रचना
यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैंपिछली रचना
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें