यही सच है (कविता)

यही सच है, कि-
ज़िन्दगी है
तो मौत भी होगी।
फिर,
मौत से डरना कैसा?
बावजूद, हमने देखा है
हर शख़्स को ताकते हुए
दूर कहीं शून्य में।
जीवन के
इस आपाधापी में
मौत को
पल-पल जीते हुए।
यह भी सच है
ज़िन्दगी और मौत के बीच
क्रॉस पर लटका
हर इंसान
ईषा नहीं होता। क्योंकि-
ज़िन्दगी!
सूर्ख लाल अंगारे की तरह बिखरा पड़ा मिलता है
मौत की क्षितिज पर
जहाँ आत्माएँ
ठंडे शरीर का खून पीकर
जश्न मना रही होती है
एक और
लाश के आने की।
और तब
इंसाफ़ की अंधी तराज़ू
के दो पलड़े
आशा और निराशा
की डगमगाते सतह पर
ज़िन्दगी को ढूँढने वाला
हर वो शख़्स
बे-ईमान नज़र आता है
जो-
ज़िन्दगी को मौत
मौत को ज़िन्दगी
कहता है।


रचनाकार : पारो शैवलिनी
लेखन तिथि : 2021
यह पृष्ठ 318 बार देखा गया है
×
आगे रचना नहीं है


पिछली रचना

आज बोलता है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें