यहाँ हवा के सिवा रात भर न था कोई
मुझे लगा था कोई है मगर न था कोई
थी एक भीड़ मगर हम-सफ़र न था कोई
सफ़र के वक़्त जुदाई का डर न था कोई
वो रौशनी की किरन आई और चली भी गई
खुला हुआ मिरी बस्ती का दर न था कोई
बस एक बार वो भूला था घर का दरवाज़ा
फिर उस के जैसा यहाँ दर-ब-दर न था कोई
झुलस के रह गए आँगन में धूप से पौदे
कि साया-दार पुराना शजर न था कोई
ये और बात रहा बे-नियाज़ महफ़िल में
यूँ मेरे हाल से वो बे-ख़बर न था कोई
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