चाहत तो,
जैसा रहा ही नहीं कुछ।
ऑंखें यूॅं,
बीते लम्हों को याद कर;
बुनती है एक तस्वीर।
जिसमें तुम हो, मैं हूॅं
पंछियों का मधुर संगीत है;
और खुले आसमान के नीचे,
विचरते स्वच्छंद जीव जंतु हैं।
वह बिंब!
उभरता है मानस पर।
पर, होता क्षणिक है
बहते जल के बुलबुले की तरह।
अज्ञात आशंका और भय
कुरेदता है दिन रात;
एक भयावह स्वप्न की तरह।
जीवन बीतता जा रहा है,
उस जल-भृंगो के समान;
जो बहते जल के विपरीत दिशा में,
विरुद्ध इच्छा के
अन्यमनस्क होकर
बहते रहते हैं।
जिसका न आदि ज्ञात है,
और न अंत।
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