वो जो थोड़ी मुश्किलों से हो के आजिज़ मर गए (ग़ज़ल)

वो जो थोड़ी मुश्किलों से हो के आजिज़ मर गए,
उनसे क्या उम्मीद थी और देखिए क्या कर गए?

उस इमारत को भला पुख़्ता इमारत क्या कहें,
नींव में जिसकी लगाए मोम के पत्थर गए।

उम्र भर अंधी गुफाओं में रहे दरअसल हम,
इसलिए कल धूप में साए से अपने डर गए।

फूल खिलते हैं बड़ी उम्मीद से, देखो इन्हें,
उम्र थोड़ी मुस्करा कर डालियों से झर गए।

बँट रहा है तेल मिट्टी का किसी ने जब कहा,
छोड़ कर बच्चे मदरसा अपने-अपने घर गए।

हम किसी को क्या समझ पाते कि करते एहतराम,
हम तो अपने वक़्त से पहले ही यारो! मर गए।


रचनाकार : शतदल
यह पृष्ठ 233 बार देखा गया है
×

अगली रचना

जिस सिम्त नज़र जाए, वो मुझको नज़र आए


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें