कोई नहीं पूछता उसे
क्योंकि वो आज ठूँठ हो गया
सदाबहार मौसम के समक्ष
वो लाचार बेचारा हो गया
भूल गए लोग, कभी वो भी
पत्र-पुष्पों से सजा करता था
पवन झोंके सा मस्त बहकर
बहारों का जश्न मनाता था
लिपटी रहती थी लताएँ
बेला, चम्पा, चमेली,
शबनमी बूँदों से नहाई
इठलाती अमरबेल सी अलबेली
सबने साथ छोड़ दिया
जब पात पुष्प गिरने लगे
शीश पर शोभा जिनसे
वो अंश ख़ुद झरने लगे
अब तो लोग उससे
मुँह अपना फेरने लगे
जिसकी छाँव में फल खाए
अब उसे ही कोसने लगे
सबकी परवरिश कर
शिक्षा, संस्कार फल दिए
उसके ही गिरने का इन्तज़ार
फल खाने वाले करने लगे
क्योंकि अब वो लाचार हो गया
वो दरख़्त जिसके साए में सब पले
वो अब बेचारा, बूढ़ा हो गया।

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