ख़ुशनुमा दिन
हथेलियों पर बो देता है
काग़ज़ी फूलों का जंगल,
भ्रांतियों के आकाश में
कौंधती है जब बिजली,
मेरे भीतर चिनगारियाँ
भड़क उठती हैं।
गर्द चेहरे पर
धब्बे-सा उगता है चाँद
अँधेरे के दलदल को चीरता हुआ।
तब ज़िंदगी का काला हिस्सा
उजाले से दमकने लगता है।
धूपछाँही अनुभवों को
सहेजती हुई मैं
बार-बार प्रयत्न करती हूँ
कि बिल्कुल भूल जाऊँ
उस सच को
जिसने पैदा किए हैं ढेर सारे झूठे एहसास।

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
