विरोध (कविता)

चुप रहने पर आवाज़ चुप हो जाती है एक दिन
भाषा चुप हो जाती है
व्याकरण बिगड़ जाता है चुप रहने से

चुप रहने से स्मृति क्षीण हो जाती है
मिटने लगती हैं यादें
पहचाना हुआ आदमी भी लगता है
एकदम नया
जैसे मिला हो पहली बार

चुप रहने से फ़र्क़ पता नहीं चलता कुछ
समझ के बारे में भी संदेह होने लगता है
विचार में लग जाता है घुन
जबकि वह कोई लकड़ी नहीं है
चुप रहने से मनुष्यता घटने लगती है
जन्म लेता है एक शातिर हत्यारा उसी चुप्पी से

फिर उस चुप आदमी के सामने हत्या भी होगी तो
वह निसहाय बन जाएगा
रोएगा लेकिन विरोध नहीं करेगा

चुप आदमी को कुछ नहीं सूझता
इतना चुप हो जाता है
ये उसकी आदत बन जाती है कि
वह पत्थर हो जाता है हर जगह

फिर उसकी हँसी चुप हो जाती है
उसके गीत चुप हो जाते हैं
उसकी पुकार चुप हो जाती है

इस तरह कोने में पड़े पड़े एक दिन
बिना कोई कारण बताए
उसकी साँस चुप हो जाती है।


रचनाकार : शंकरानंद
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