विरह पीड़ा (गीत)

विरह पीड़ा में तप रहा था,
अंतः में अनुराग लिए।
कब के बिछड़े आज मिले हैं,
हम सावन में प्राणप्रिये।

हाड़ कँपाती शिशिर मास भी,
कम नही कर पाया तपन।
मन मंदिर में तू ही तू थी,
तूझे ढूँढ़ती थी नयन।
कस्तूरी सी ख़ुशबू तेरी,
खींच रही थी प्यार प्रिये।
कब के बिछड़े आज मिले हैं,
हम सावन में प्राणप्रिये।

बौराया था मन पतझड़ में,
घूम रहा था घायल सा।
अमराई औ' पुरवाई में,
चंचल मधुकर पागल सा।
चैत्र जेठ की तपती लू में,
घूँट-घूँट आँसू पीएँ।
कब के बिछड़े आज मिले हैं,
हम सावन में प्राणप्रिये।

सोंधी मिट्टी औ' हरियाली,
मुझको जब मजबूर किया।
तीव्र मिलन की चाहत में तब,
वापस आना ठान लिया।
आ भर लूँ आलिंगन में अब,
बिन कोई प्रतिकार किए।
कब के बिछड़े आज मिले हैं,
हम सावन में प्राणप्रिये।


लेखन तिथि : 2 अगस्त, 2021
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