विबोधन (कविता)

खुले न खोले नयन, कमल फूले, खग बोले।
आकुल अलि-कुल उड़े, लता तरु पल्लव डोले।
रुचिर रंग में रँगी, उमगती ऊषा आई।
हँसी दिग्वधू, लसी गगन में ललित लुनाई॥

दूब लहलही हुई, पहन मोती की माला।
तिमिर तिरोहित हुआ, फैलने लगा उँजाला।
मलिन रजनिपति हुए, कलुष रजनी के आगे।
रंजित हो अनुराग राग से रवि अनुरागे॥

कर सजीवता दान बही नव जीवन धारा।
बना ज्योतिमय ज्योति-हीन जन-लोचन तारा।
दूर हुआ अवसाद, गात-गत-जड़ता भागी।
बहा कार्य का स्त्रोत, अवनि की जनता जागी।
निज मधुर उक्ति वर विभा से, है उर तिमिर भगा रही।
जागो जागो भारत सुअन, है जग-जननि जगा रही॥


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