उतना कवि तो कोई भी नहीं
जितनी व्यापक दुनिया
जितने अंतर्मन के प्रसंग
आहत करती शब्दावलियाँ फिर भी
उँगलियों को दुखा कर शरीक हो जातीं
निर्लज्ज भाषा के निराकार शोर में
अग-प्रत्यंग अब शोक में डूबे
चुपचाप अपने हाड़-मांस रुधिर में आसीन
उँगलियाँ पर मानती नहीं अपनी औक़ात
उतना कवि तो बिल्कुल ही नहीं
कि उठ खड़ा होता पूरे शरीर से
नापता तीन क़दमों से धरती और आसमान
सिर पर पैर रखता समय के।

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