साहित्य रचना : साहित्य का समृद्ध कोष
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हापुड़, उत्तर प्रदेश
1970
उसी की तरह मुझे सारा ज़माना चाहे वो मिरा होने से ज़ियादा मुझे पाना चाहे मेरी पलकों से फिसल जाता है चेहरा तेरा ये मुसाफ़िर तो कोई और ठिकाना चाहे एक बनफूल था इस शहर में वो भी न रहा कोई अब किस के लिए लौट के आना चाहे ज़िंदगी हसरतों के साज़ पे सहमा-सहमा वो तराना है जिसे दिल नहीं गाना चाहे
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