उस शाम (कविता)

पहाड़ों का सलेटी धुँआ,
उतरा भीतर,
घुला,
ऑफ़िस की चीकट थकान में।
उस शाम—
सुस्त मैं,
कॉफ़ी सुड़कता,
ठूँसता रहा,
खोल में अपना अंतरतम।
दरवाज़ें की संध से आई,
सिंदूरी आभा,
टिकी-दीवार पर,
अंडाकार।
उस शाम—
मुझे याद आई,
तुम्हारी ओवल शेप की सिंदूरी बिंदी।
जल्द जली स्ट्रीट लाइटें
पर, उस शाम—
रात देर से आई,
सूरज के साथ,
तकता रहा पीला सोडियम।
दर्पण देखता रहा,
तुम नहीं सँवरी,
उस शाम—
समय के झूठ में,
घुल गई,
कुंद, खुंडी पीड़ा।
अर्जुन के पेड़ों की,
लंबी होती छाँव,
मेरे आँगन के ठीक बाहर,
सहमकर रुक गई।
उस शाम—
मेरी विरक्ति समेटे बिना,
वह, डिफ़्यूज़ हो गई,
रात के अँधेरे में।


रचनाकार : तरुण भटनागर
यह पृष्ठ 228 बार देखा गया है
×

अगली रचना

शिखरों पर


पिछली रचना

उसका समय
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें