पहाड़ों का सलेटी धुँआ,
उतरा भीतर,
घुला,
ऑफ़िस की चीकट थकान में।
उस शाम—
सुस्त मैं,
कॉफ़ी सुड़कता,
ठूँसता रहा,
खोल में अपना अंतरतम।
दरवाज़ें की संध से आई,
सिंदूरी आभा,
टिकी-दीवार पर,
अंडाकार।
उस शाम—
मुझे याद आई,
तुम्हारी ओवल शेप की सिंदूरी बिंदी।
जल्द जली स्ट्रीट लाइटें
पर, उस शाम—
रात देर से आई,
सूरज के साथ,
तकता रहा पीला सोडियम।
दर्पण देखता रहा,
तुम नहीं सँवरी,
उस शाम—
समय के झूठ में,
घुल गई,
कुंद, खुंडी पीड़ा।
अर्जुन के पेड़ों की,
लंबी होती छाँव,
मेरे आँगन के ठीक बाहर,
सहमकर रुक गई।
उस शाम—
मेरी विरक्ति समेटे बिना,
वह, डिफ़्यूज़ हो गई,
रात के अँधेरे में।

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