उठ जाग रे ए मानव,
मत कर यूँ उपहास,
युगों युगों से करता आया,
कैसा यह विनाश?
प्रकृति खो रही स्वरूप,
मचाया तूने विध्वंश,
चारों तरफ़ मचा हाहाकार,
फैल गया संत्रास।
भाई भाई से लड़ रहा,
पिता पुत्र में हो रहा रोष,
बंधा स्वार्थ की ज़ंजीरों में,
बनाया ख़ुद का उपहास।
टूट रहे संयुक्त परिवार,
न रहा अब वह अपनापा,
बंधन टूट रहे सारे,
कैसा हुआ ये अजब सियापा।
नेता हो रहे नीति भ्रष्ट,
करते कुछ भी परिहास,
खो रहे पद की गरिमा,
जनता करती उपहास।
बढ़ी राजनीतिक लोलुपता,
बढ़ा धन का लोभ,
करते नहीं देश की सेवा,
जनता में बढ़ रहा क्षोभ।
द्रौपदी ने किया महल में,
दुःशासन का उपहास,
लिया दुःशासन ने प्रण,
द्रौपदी का करेगा विनाश।
हुआ द्युत का खेल,
दांव पर लग गई द्रौपदी,
बाल खींचकर टाना सभा में,
शर्मसार हुई द्रौपदी।
सीता हरण किया रावण ने,
किया सीता पर अट्टहास,
किया राम ने लंका गमन,
रावण का हुआ सर्वनास।
लौटे राम सीता अयोध्या,
जनता ने उठाए सवाल,
इतने वर्ष लंका में थी,
इसी बात का हुआ बवाल।
पुकारा सीता ने धरती माँ को,
पाया धरती का आग़ोश।
शर्मशार हुई अयोध्या की जनता,
अपनी बातों पर हुआ अफ़सोस।
कोरोना की विभीषिका आई,
धरती पर उदासी छाई,
चारों ओर मच गई त्राहि,
कैसी यह विपत्ति है आई।
चारों ओर मर रहें लोग,
बिछी हर ओर हैं लाशें,
कतराते लोग अपनों से,
जो गिन रहें हैं आख़िरी साँसें।
यह कैसा काल आ गया,
प्रकृति कर रही उपहास,
कल तूने मुझे किया बर्बाद,
आज उड़ाऊँ मैं तेरा परिहास।
तीसरी लहर दे रही दस्तक,
मच रहा हर ओर कोलाहल,
ले रहे थे कल तुम मेरे प्राण,
आज पिऊँ तुम्हारा हलाहल।
न समझो कमज़ोर किसी को,
न उड़ाओ किसी का मज़ाक।
वक़्त बदलते देर नहीं लगती,
वक़्त लेता सभी का हिसाब।
आज करोगे किसी का उपहास,
कल होगा तुम्हारा भी उपहास।
प्यारी सबको अपनी इज़्ज़त,
मत करना कभी ग़लत परिहास।
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