टूट गए हृदय के सपनें,
हो गया अश्रुमय जीवन।
थक गईं आशा चरण के,
वीरान पड़ गया मधुबन।
चाह की बहती नदी थी,
ख़ुशियों के पंख लगे थे।
एक होने का समय था,
ख़्वाब उर में सज रहे थे।
क्या हुआ यूॅं क्यों हुआ?
चाहत डूबी मॅंझधार में।
रोष भी छाई थी ऐसी,
अंधड़ उठा व्यवहार में।
चाह इतनी बढ़ गई थी,
पथ नहीं था अपरिचित।
सुखद क्षण पास ही थे,
कुछ हुआ ऐसा अचंभित।
हुए सिंधु के दो किनारे,
कश्ती फॅंसी मँझधार में।
लहरों ने पतवार थामी,
भंवर उठा जलधार में।
मन की गति भी ऐसी थी,
पाँव थे अंगार पर।
उर में उठते शत विचार,
ऑंखे टंगी दीवार पर।
शायद प्रारब्ध का खेल है,
नियति का तांडव नृत्य है।
कर्मों का यह भोग है या
भावनाओं का कृत्य है।
जो हुआ अच्छा हुआ,
सब यही तो कहते हैं।
मानकर विधान विधि का,
पथ पर आगे बढ़ते हैं।

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
