थोड़ी-सी रोशनी (कविता)

पलकों पर ठहरी नमी
अब शब्द नहीं खोजती,
बस रिसती है
अनकहे अपराध-भाव की तरह।

भीतर का शोर
इतना भारी हो गया है
कि मौन भी
टूटकर गिरता है
चूर-चूर।

फ़िलहाल,
सिर्फ़ यही होता है—
भीतर की अँधेरी जगहों में
थोड़ी-सी रोशनी रिसती है,
और मैं चुपचाप उसे
आँखों तक आने देता हूँ।


लेखन तिथि : अक्टूबर 2025
यह पृष्ठ 7 बार देखा गया है
×

अगली रचना

बेचैनी


पीछे रचना नहीं है
कुछ संबंधित रचनाएँ


इनकी रचनाएँ पढ़िए

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।

            

रचनाएँ खोजें

रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें