थे कभी हम-नफ़स हमराहों की तरह (ग़ज़ल)

थे कभी हम-नफ़स हमराहों की तरह
मिलते अब महज़ वो बेगानों की तरह

इश्क़ की राह ना थी मुक्कमल कभी
बे-क़बूल अनसुलझे अफ़सानों की तरह

मुद्दतों से दबा दिल में जो भी कुछ
बह गया आँखो से अरमानों की तरह

यार मेरे वफ़ा की दूहाई न दे
मैं शमा में जला परवानों की तरह

थी ग़नीमत ज़रा, बे-नफ़स ना हुआ
ज़िंदगी ढह गई दीवारों की तरह

याँ सितम-गारी से इस तरह सहमा है 'सुराज'
अब रखूँ हर क़दम गुनहगारों की तरह


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