तन्हाई को लगी हैं उम्र तो लगने दें,
ज़िंदा रहना हैं तो घर पर रहने दें।
जिसने बेचा हैं ईमान दूकानदारी में,
लानतें आएगी, अभी कमाई बढ़ने दे।
मय्यतों में अभी बाक़ी हैं चंद साँसे,
अभी मरा नहीं वो, मुतलक़ मरने दें।
बज़्म में मोहब्बत उदास हो आई हैं,
गर याद करता हैं साक़ी तो करने दें।
भूखा मर रहा हैं पड़ोसी तो हमें क्या,
मिरे घर पर हैं राशन बहुत, पकने दें।
किसानों को फ़सलों से मिली राहतें,
मज़दूरों को मुफ़लिसी में सड़ने दें।
झूठों के हुजूम में सच्चा भी रोड पर,
गेहूँ के साथ घुन पिसा हैं, दलने दें।
तेरी गली से रोज़ गुज़रता था कभू,
अभी तिरी उल्फ़त को तौबा कहने दें।
ईलाही भी तिरा दर चूमने आएगा,
मुफ़लिस के शानों पर हाथ रखने दे।
लॉकडाउन की सूरतें दोनों ही आई,
रस्ता और नहीं, जो चल रहा हैं चलने दें।
ऐसा न हो ग़रीबी बिलखें भूख से,
कर्मवीर को कोरोना का काल बनने दें।

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