स्त्री तू ही क्यों
अपने शब्दों को मिटाकर
अपने ही एहसास को
मन में ही मार देती है...!
स्त्री तू ही क्यों
अपने भीतर की शक्ति को
पहचानना ही नहीं चाहती है
अपने ही जज़्बातों को
क्यों मार देना चाहती है...!
स्त्री तू ही क्यों
अन्याय को देखकर
अपना मुँह नहीं खोलती है
अपनी उम्मीदों को
तू क्यों दबा देती है...!
स्त्री तू ही क्यों
दूसरों की अच्छाई के लिए
अपने ही भलाई को भूल जाती है
अपने हुनर को, न पहचानते हुए
क्यों तू सिमट कर रह जाना चाहती है...!
स्त्री तू ही क्यों
सच्चाई को छुपा कर
हर ज़ुल्मों को सहती है
हार मान कर ख़ुद से
अपनी दर्द को छुपाती है...!
स्त्री तू ही क्यों
ख़ुद को कमज़ोर मानती है
क्यों ख़ुद पर विश्वास नहीं करती
कि तू भी दुनिया जीत सकती है...!!
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