सोचता हूँ क्या था अब क्या हो गया (ग़ज़ल)

सोचता हूँ क्या था अब क्या हो गया
इक समुंदर कैसे सहरा हो गया

धज्जियाँ उड़ती रहीं तहज़ीब की
पल में मेरा मुल्क नंगा हो गया

इस सियासत में जो डूबे हैं उन्हें
सर उठाने का वसीला हो गया

आज हर क़ैद-ए-सियासत के लिए
काग़ज़ी लोगों का पहरा हो गया

फिर किसी का लम्स याद आया हमें
फिर कोई एहसास तन्हा हो गया

ख़्वाब में देखा था 'ज़ाहिद' इक ख़ुदा
आँख खुलते ही वो मेरा हो गया


रचनाकार : ज़ाहिद अबरोल
  • विषय : -  
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