सोच समझकर चलना होगा (कविता)

सोच-समझकर चलना होगा,
अगति नहीं लक्षण जीवन का।

परिवर्तन होते रहते हैं,
उन्हें न रोक सका है कोई।
परिवर्तन की शक्ति अतुल है,
उसे न बाँध सका है कोई।

तुम परिवर्तन की गति समझो,
तुम परिवर्तन को पहचानो!
तुम परिवर्तन को अपनाकर,
विश्व बना लो अपने मन का!

अब तक जो होता आया है,
उसमें जन-सम्मान नहीं है।
उसमें मानव को मानव के,
सुख-दुःख का कुछ ध्यान नहीं है।
उससे व्यक्तिवाद पनपा है,
उससे पूँजीवाद हुआ है।
इन्हें नष्ट कर शोषित मानव,
शाप काट दो जग-जीवन का।

अब कुछ ऐसी हवा चली है,
जिससे सुप्त जगत जागा हैं।
जिससे कम्पित जीर्ण जगत ने,
आज मरण का वर माँगा है।
उनको बहुत जल्द दफ़नाओ,
नवयुग के जन आगे आओ!
नव निर्माण करो तुम जग का,
जीवन का, समाज का, मन का!

यह संक्रांति-काल आया है,
हम इसका कुछ लाभ उठाएँ।
आज पुरानी निर्बलता की,
जगह शक्ति नूतन बैठाएँ!
आँख खोल बनकर तटस्थ,
निष्क्रिय दर्शन का समय नहीं है।
आज हमारी एक-एक गति पर,
निर्भर भविष्य जीवन का।

बिगुल बजाओ और बढ़ चलो,
यह सम्मुख मैदान पड़ा है!
मानवता के मुक्ति दूत तुम,
कौन तुम्हारे साथ अड़ा है?
यह संघर्ष काम आया है।
आई जय-यात्रा की बेला,
तुम नूतन समाज के स्रष्टा,
पग-ध्वनि में गर्जन जीवन का!

जीवित मानव-महिमा तुमसे,
तुम मानव-जीवन के धर्ता,
तुम मानव जीवन के कर्त्ता,
तुम मानव जीवन के हर्ता।
विपुल शक्तियों के निधान तुम,
अपमानित जीते धरती पर,
अपना शक्ति-प्रकाश दिखा दो।
क्षय कर अत्याचार-अनय का,
धमिक कृषक भोगो वह अमृत,
जो फल है जीवन-मंथन का।


रचनाकार : त्रिलोचन
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