शुतुरमुर्ग़ (कविता)

अपनी बेचैनियों को उठाकर
कहाँ रख दूँ
किसी ताख पर
या लपेट कर सिरहाने
मेरे कान सोते क्यों नहीं
आँखें सूँघती रहती हैं
तुम्हारे सूजे होंठों को चखती है मेरी पेशानी
मेरे होंठ ऊँघते हैं
तुम्हारे चुंबनों के दौरान
सब गड़बड़ा गया है
मैं चीख़ कर हँसने लगी हूँ
और खिलखिला कर रोती हूँ

मेरी तप्त-वासनाओं को क्या हुआ है?
प्रेम है कि कोई लगातार गिरती बर्फ़
ठंडा पड़ता जा रहा है
सारा ग़ुस्सा, सारी जलन
मैं देख रही हूँ तुम ढँक रहे हो
ख़ुद को एक छाया से
जिसे मैं उधेड़ देना चाहती हूँ
किसी और के लिए निकले
तुम्हारे अस्फुट स्वर
मुझ में भर रहे हैं ठंडी हिंसा

सारे मुखौटे खींच कर पूछने
का मन है
कहो?
किसके लिए
तुम रंग रहे हो अपनी खाल
कहाँ छिपा दी है
वह विज्ञापन बनी आस्था
कट्टरता के नाख़ूनों को
किसके लिए मुलायम कर रहे हो
तुम किसी को पाने के लिए
कर सकते हो पार
अंटार्टिका
या सहारा रेगिस्तान भी
अपनी ज़मीन से भागते हुए
एक अजीब थकान में हूँ मैं
शुतुरमुर्ग़ की तरह
अपनी खोई हुई आग की तलाश में।


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