तम-तोम मिटाते हैं जग का,
शिक्षक धरती के दिनकर हैं।
हैं अंक सजे निर्माण प्रलय,
शिष्यों हित प्रभु सम हितकर हैं।
शुचि दिव्य ज्ञान के दाता वह,
सोने को पारस में बदले।
वह सृजनकार वह चित्रकार,
वह मात पिता सम सुधिकर हैं।
कच्ची मिट्टी को गढ़कर के,
वह सुन्दर रूप सजाते हैं।
देते खुराक में संस्कार,
वह ज्ञानाहार कराते हैं।
शिक्षक ही पंख लगाते हैं,
सपनों की भरने को उड़ान।
पावन शिक्षा के मंदिर के,
वह ही भगवान कहाते हैं।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएरचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें