शिकायत और रिश्ते (कविता)

रिश्तों की गाँठे बंद पड़ी थी, यादों के संन्दुक में,
खोला तो शिकायतों का पुलिंदा, आ गया हाथ में?
कौन-कौन सी गाँठ खोलूँ, किस किस की शिकायत सुलझाऊँ?
बहुत सी हैं उलझने जीवन में, कुछ भी तो मैं समझ न पाऊँ।

जैसे-जैसे शिकायतें दूर करता गया, सुलझते गए रिश्तों के तार,
जैसे जैसे सुलझी रिश्तों की गाँठे, खुलते गए दिल के द्वार।
ज़िंदगी हो गई ख़ुशनुमा, रिश्तों ने जब ली अँगड़ाई,
झूम उठे मेरे मन के द्वार, रिश्तों से जब हुई फिर आशनाई।

खिल उठे यादों के फूल, महक उठा मन का उपवन,
झूम उठा सारा संसार, सुवासित हुआ ह्रदय में मधुवन।
दूर हुई सारी शिकायते, संभल रहे अब सारे रिश्ते,
ज़िंदगी के मन आँगन में, रिश्ते लगने लगे फ़रिश्ते।

समझ गया रिश्तों की अहमियत, मिला अपनों से अपनापन,
दूर हो गई सारी उलझनें, महक उठा मन का आँगन।
फाड़ दिया शिकायतों का पुलिंदा, सहेज ली मैंने रिश्तों की किताब,
चहकने लगी जीवन की बगिया, छलक उठा अपनेपन का शबाब।

जोड़े रखना ज़िंदगी के तार, न तोड़ना कभी रिश्तों की कमान,
रिश्ते तो हैं अनमोल धरोहर, बनाते जीवन को आसान।
कभी न पड़ना उलझनों में, न करना बेकार की शिकायत,
रिश्तों को सहेजकर रखना, ईश्वर की है यह अनमोल इनायत।


लेखन तिथि : 16 नवम्बर, 2021
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