शजर-ए-ग़ज़ल से लाया हूँ एक शे'र फ़रियाद कर,
क़ीमत इश्क़ होगी मैं बेच दूँगा ख़ुद को बर्बाद कर।
सारे जहाँ की तबस्सुम इक तिरे लबों पर सजा दी,
ख़ुदा-रा तू सिर्फ़ मुस्करा, यूँ ना दिल-ए-नाशाद कर।
नफ़स-ए-तिमिर में कोई अक्स दूधिया दिखता हैं,
अमावस की रात में तू यूँ चेहरे को ना आज़ाद कर।
चाँद-ओ-चराग़ों से तिरा कुछ तो वाबस्ता रहा होगा,
सबको रखा तूने रौशन, अब मिरा घर आबाद कर।
ग़ज़ल-ओ-नज़्मों को छूने की शदीद प्यास थी मुझमें,
चल रही कर्मवीर की कविताई सिर्फ़ तुझें याद कर।
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