शहर (कविता)

सफ़ेद कपोत से बच्चे
उतर रहे थे
दौड़ रहे थे—
घर की तरफ़

एक बच्चे के हाथ में डंडे से बँधा
एक चुंबक था
वह समूची पृथ्वी का लोहा
चुन लेना चाहता था

मैंने देखा शहर का उदास सूरज
उसके चेहरे पर चमक रहा है
मैंने महसूस किया उसकी
नन्हीं मगर चौड़ी उँगलियों में
फँसा वह डंडा
गांधी के डंडे से अधिक कारगर था

जब शहर के चुंबक को वह ढूँढ़ रहा था
पुलिस अधीक्षक के कमरे में योजना बन रही थी
फ़्लाईओवर के नीचे बसे घरों को उजाड़ने की
गांधी की तस्वीर के ठीक नीचे
कि अचानक एक कूड़े के ढेर पर
उसकी चुंबक से चिपक गए
बहुत सारे जाले और बेकार कारतूस
शहर का ज़िंदा लोहा
अब भी उसकी हदों से दूर था
सफ़ेद कपोत से बच्चे
स्कूल बस से उतरते हुए देख रहे थे उसे
एक ज़िंदा सूरज
डूब रहा था
शहर का अँधेरा जगमगाने लगा था


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