शब्दपदीयम् (कविता)

मैं शब्द हूँ
शंकर के डमरू से निकला
और इधर-उधर बिखरा
न जाने कब कोई इंद्र आए
और रात के तीसरे पहर
मुझी से
अहिल्या का दरवाज़ा खुलवाए
कोई चाँद पर फेंक कर मारे मृगछाल
और मेरी ही आवाज़ आए,

गरदन में शराब का घट बाँधे
कब कोई सेनापति आए
और मुझी से गाँवों को जला देने के लिए
योद्धाओं में जो जगाए
मैं शब्द हूँ इसलिए ब्रह्म हूँ
बीच जंगल में न जाने कोई व्याध
मुझी को सुन
सरवर तट पानी पीती हिरणी पर शब्दभेदी वाण चलाए,
कब कोई गवैया, कब कोई भाँट आए
और मुझी से किसी आततायी राजा का
इतिहास लिखवाए
मैं शब्द हूँ मैं नहीं चाहता
फिर किसी क्रौंच पंछी की कराह में बदलना
मैं शब्द हूँ
अजब कशमकश में पड़ा
कहीं मुझे ही सुन बाग़ में फूलों में बैठा तक्षक नाग
किसी चिड़िया को डसने में सफल न हो जाए

मैं अब भी हूँ पहले की ही तरह
अनंत ऊर्जा से भरा
पर कत्थई रंग की तरह उदास
कि कहीं मेरे ही प्रयोग से कोई इस धरा को भस्म करने का
फिर से वरदान न पा जाए

मैं शब्द हूँ
कहीं मुझी से कोई मनुस्मृति
फिर न लिख दी जाए

कहीं मुझी से फिर न लिख दी जाएँ
इतिहास की दुर्दांत घोषणाएँ
तानाशाहों की कहीं लिख न दी जाएँ
मुझी से आत्मकथाएँ

मैं शब्द हूँ
डरता हुआ
नगाड़ों की गड़गड़ आती आवाज़ के बीच
एक हिरण के मन की तरह
अनकता हुआ।


रचनाकार : बद्री नारायण
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