शायद कि मर गया मिरे अंदर का आदमी (ग़ज़ल)

शायद कि मर गया मिरे अंदर का आदमी
आँखें दिखा रहा है बराबर का आदमी

सूरज सितारे कोह ओ समुंदर फ़लक ज़मीं
सब एक कर चुका है ये गज़ भर का आदमी

आवाज़ आई पीछे पलट कर तो देखिए
पीछे पलट के देखा तो पत्थर का आदमी

इस घर का टेलीफ़ोन अभी जाग जाएगा
साहब को ले के चल दिया दफ़्तर का आदमी

ज़र्रे से कम-बिसात पे सूरज-निगाहियाँ
'ख़ालिद' भी अपना है तो मुक़द्दर का आदमी


रचनाकार : ख़ालिद महमूद
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