सीढ़ियाँ (कविता)

सीढ़ियाँ हैं किताबें
छत की ओर जाती हुईं
ग़ायब हो जाती हैं
छत पहुँचने से ठीक पहले
जैसे कहती हों सीढ़ियाँ—
कोई काम नहीं छत पर मेरा

रेंगती हुई धरती
उड़ता हुआ आकाश
देखना हो तो
किताबें नहीं
आँखें ही औज़ार।


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