घृणित कुछ रहा नहीं मेरे लिए
न रहा कुत्सित-कुरुप-गर्हित
अपने-अपने स्व में
सौंदर्यवान रहा सब कुछ।
पापियों के गले में
कंठहार की तरह शोभित रहा पाप
शाप, अभिशप्तों के शीश पर चढ़ा रहा सादर
अंधकार, बाहर-भीतर फैला अपने विस्तार में
नग्नता, दरिद्रता, विरूपता को देता रहा शरण
अपने-अपने स्व में सौंदर्यवान रहा सब कुछ।
साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है।
आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।