संवाद का सिलसिला यों ही शुरू नहीं होता
कि किसी दर्ज़ीं की तरह सुई-धागा लेकर बैठ जाओ
और मेरे रूमाल पर तुम अपना नाम लिख दो
मैं मई-जून की दुपहर में पसीने से तरबतर
कोलतार की नंगी सड़कों पर ठेला-गाड़ी खींचता रहूँ
और तुम अमन-चैन से अख़बार पढ़ते रहे
शायद तुम नहीं जानते
कि अख़बार दुनिया में अशांति फैलाते हैं
इतिहास में झाँक कर देखो वे दिन
जब अख़बारों का जन्म नहीं हुआ था
नहीं ऐसा नहीं है
कि मैं संवाद की स्थिति से इनकार कर रहा हूँ
पत्थर में छुपा हुआ पानी देखने के लिए
ज़रूरी है पत्थर तोड़ना... कहा, ठेला-गाड़ीवाले ने
धैर्य रखो और समझने की कोशिश करो
चाहता हूँ मैं भी चाहता हूँ कि हमारे बीच संवाद हो
एक साबुत भाषा हो कपटहीन और आत्मीय
कि बीच में पसरे हुए पहाड़ हटें गुलमुहर फलें
चाहता हूँ मैं भी कि धराशाई हो जाएँ
ग़लत मर्यादाएँ और दुर्बल ज़िद
लेकिन इससे पहले कि मैं तुम्हारी तरफ़ आऊँ
तुम्हें मेरी प्यास की सही-सही चिंता होनी चाहिए
मेरे पास सदियों से प्यासा एक रेगिस्तान है
जिसे तलाश है एक भरे-पूरे उदार जलाशय की
तुम सबसे पहले वह जलाशय बनो
पसीना पोंछते हुए ठेला-गाड़ीवाले ने कहा
और कहा कि उससे भी पहले अपने मुलायम हाथ
मेरे ज़ख़्मदार सख़्त हाथों से बदलो
पसीने से तरबतर और फटी हुई मेरी क़मीज़ से बदलो
अपना ख़ूबसूरत विदेशी कोट
अपनी आमदनी बदलो मेरी ग़रीबी से
अपना आलीशान बंगला मेरे कच्चे घर से बदलो
बदलो पहले अपनी मोटर-गाड़ी मेरी ठेला-गाड़ी से
मेरे अँधेरों से बदलो अपनी रोशनी
अपना मुस्कुराता खेलता बच्चा
मेरे अपढ़ और शैतान बच्चे से बदलो
मेरे मृत दिनों से बदलो अपने ख़ुशनुमा दिन
ठेला-गाड़ी वाला कहता ही जा रहा था
कि अगर वाक़ई तुम चाहते हो कि हमारे बीच संवाद हो
तो मेरी आँखों से अपनी आँखें बदलो
क्योंकि मेरी आँखों में सपने हैं
और तुम्हारी आँखों में हिंसा
ठीक संवाद से पहले!
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