पिता के खुरदरे पैर
जैसे ही दहलीज़ पर घर्षण करते थे,
घर में वो निढ़ाल जिस्म
एक ऊर्जा ले आता था।
तिरपाल जैसी चुभती शर्ट
ऐसे भीगी होती थी जैसे
झाड़ पर ठहरी हो कोई शबनम।
पसीनें की लहलहाती महक,
चूल्हें की बुझती लौ में घी झोंक देती थी।
पसीनें की बूँदों से,
मेरे छोटे से जिस्म की जड़े पल रही थी।
चारपाई की टूटती जड़ें
ज़मीन को छूकर जताती कि
इस संघर्ष ने थका दिया हैं पिता को,
पर रुकना कहाँ था संघर्ष अविराम था।
ये संघर्ष था कि चूल्हा सुलगता रहें,
मेरी भारी भरकम किताबें आती रहें।
फूल स्पीड में चलते पंखे ने
जैसे जानबूझकर
अख़बार का पेज पलटा,
तो अखबार पिता का संघर्ष दिखा रहा था,
छपा था कि गर्मी ने इस बार भी
सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।
वो संघर्ष ही था कि पिता ने
महीनें के पूरे तीसों दिन,
तपती धूप को दे दिए,
पिता ने सूरज का घमंड तोड़कर,
ख़ुद को जला दिया,
पर मुझें ऑफ़िस में बैठा दिया।
ये संघर्ष इतना नम था,
कि आज जब सोचता हूँ
इस संघर्ष के बारे में,
आँखों से टपक जाता है पसीना॥

साहित्य और संस्कृति को संरक्षित और प्रोत्साहित करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता होती है। आपके द्वारा दिया गया छोटा-सा सहयोग भी बड़े बदलाव ला सकता है।
सहयोग कीजिएप्रबंधन 1I.T. एवं Ond TechSol द्वारा
रचनाएँ खोजने के लिए नीचे दी गई बॉक्स में हिन्दी में लिखें और "खोजें" बटन पर क्लिक करें
