ये ज़ीस्त-ए-अंदाज़-ओ-गुफ़्तगू,
ये जीने का असरार-ओ-सलीक़ा देके गया कोई।
अहसान कैसे चुकाऊँ मैं उस शख़्सियत का,
बदतर ज़िंदगी से उबारने को संविधान दे के गया कोई।
कि वो अकेला ही सींच गया तब हमारे आज को,
बीती इक मुद्दत, पर मत भूलों मुद्दतों तक; कि अपने भी अरमान देके गया कोई।
कभू मकतब में भी अपनाया न गया वो,
कहूँ मुकम्मल हस्ती उसे, कि तालीम का इख़्तियार देके गया कोई।
उठो जागो, जिस्म से ही नहीं, रूह से भी यारों,
यूँ ही नहीं माँझी को पतवार देके गया कोई।
हश्र का दौर था, पर बनकर दावर-ए-हश्र ग़लीज़ से पार उतारा,
और समानता के अधिकारों की भरमार देके गया कोई।
रहो, एहतिमाम से परे जो मानव-मानव में भेद करें,
मत पिटों ऐसी लकीरों को, ये आह्वान देके गया कोई।

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