संभावनाएँ (कविता)

लगभग मान ही चुका था मैं
मृत्यु के अंतिम तर्क को
कि तुम आए
और कुछ इस तरह रखा
फैलाकर
जीवन के जादू का
भोला-सा इंद्रजाल
कि लगा यह प्रस्ताव
ज़रूर सफल होगा।

ग़लतियाँ ही ग़लतियाँ थी उसमें
हिसाब-किताब की,
फिर भी लगा
गलियाँ ही गलियाँ हैं उसमें
अनेक संभावनाओं की

बस, हाथ भर की दूरी पर है,
वह जिसे पाना है।

ग़लती उसी दूरी को समझने में थी।


रचनाकार : कुँवर नारायण
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