समय की किसी से सगाई नहीं है,
निद्रा में निशा जो जगाई नहीं है।
रहे झाँकते हैं गगन से सितारे,
धरा पे न जाने भलाई नहीं है।
वक़्त आज कितना असंयम भरा है,
वधू के बदन पर लुनाई नहीं है।
यहाँ पर हुई है सिलाई कढ़ाई,
अगर ऊन है तो सलाई नहीं है।
कुहासा उजागर अनाचार का ज्यों,
पुलिस ने व्यवस्था बनाई नहीं है।
लेखन तिथि : 26 सितम्बर, 2019
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अरकान : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन
तक़ती : 122 122 122 122